किसी भी समाज को जानने के लिए साहित्य एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इतिहास से केवल उस समाज का इतिहास जाना जा सकता है और अर्थशास्त्रा से आर्थिक व्यवस्था, ठीक इसी तरह राजनीति शास्त्रा से समाज की राजनीति को ही जाना जा सकता है। यदि समाज को उसके समग्र रूप में समझना और जानना है तो उसका माध्यम केवल साहित्य हो सकता है। साहित्य समाज की व्यवस्थता को ही नहीं उसके पीछे काम करने वाले मनस को भी चित्रित करता है। बालकृष्ण भक्त कहते हैं-साहित्य जनसमूह के उदय का विकास है। साहित्यकार सामाजिक सरोकारों से प्रतिबद्ध होता है। समाज की हर सुगबुगाहट चाहे अच्छी हो या बुरी, साहित्य में देखी जा सकती है क्योंकि साहित्य समाज के मनस चेतना से बुना जाता है। इसी मनस चेतना का परिणाम है-हाशिए का साहित्य। जहा समाज का दबा-कुचला, शोषित वर्ग स्थान पाता दिखाई देता है। साहित्यकार साहित्य के माध्यम से इस वर्ग के शोषण का विरोध करता है, अधिकारों के प्रति सचेत करता है तथा समाज में जागरुकता लाने का प्रयास करता है। स्त्राी, दलित, आदिवासी, किसान इसी तरह के वर्ग हैं जिन्हें समाज ने हाशिए में फेंक दिया परन्तु अब इस हाशिए के समाज पर पर्याप्त विचार विमर्श किया जा रहा है। आंदोलन, क्रान्ति, अधिकारों की बात की जा रही है। अब भी इन सबके बीच एक ऐसा वर्ग भी है जिसे हाशिए में भी स्थान नहीं मिला। वह है किन्नर, हिजड़ा, ट्रांसजेंडर या फिर सामूहिक नाम दिया जाए तो एल. जी. बी. टी. आई. क्यू.। यह समाज हाशिए के अन्दर एक और हाशिए में विस्थापित कर दिया गया। अब समाज में उसकी सुगबुगाहट तो है पर पर्याप्त रूप से एक विमर्श के रूप में अभी भी किन्नर विमर्श उभर कर सामने नहीं आया है। किन्नर विमर्श की यह शैशव अवस्था है इसलिए यह उम्मीद करना कि परिपक्व साहित्य हो होगा न्याय संगत नहीं होगा।
Sahitya Samaj me Ubharta kinnar Vimarash (साहित्य समाज में उभरता किन्नर विमर्श)
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