भारतीय इतिहास में बीसवीं सदी के आरंभिक दो दशक राजनीतिक दृष्टि से और बौद्धिक सक्रियता की वजह से अपनी खास अहमियत रखते हैं। एक भाषा के रूप में खड़ी (बोली) हिंदी को मान्यता मिलने के साथ यही वह वक्त है, जब साहित्य के मिज़ाज में तब्दीली दिखाई देती है। छायावाद जैसे साहित्य आंदोलन की पृष्ठभूमि निर्मित होती है, और एक तरह से आधुनिक समय के ‘क्लासिक’ दौर का आरंभ होता है।
महत्व की बात यह है कि इस दौर में न केवल भारत के एक राष्ट्र-राज्य होने के तर्क को दृढ़ता से सामने लाया गया, बल्कि उसे इतनी ही दृढ़ता से स्थापित भी किया गया। जाहीर सी बात है कि ऐसे समय में समाज में बौद्धिक उलझनें होती ही हैं, क्योंकि जहां एक ओर भारतीय राष्ट्र-राज्य की वैधता के लिए और उसकी ‘ऐतिहासिक’ के लिए तर्क खोजने थे, वहीं दूसरी ओर ब्रितानियों पर यह सभ्यतागत दायित्व है कि वह यहाँ के सपेरों और जादूगरों को सभ्य बनाएं।
यह भारतीय इतिहास में पहला मौका था जब औपनिवेशिक मिथ्याचारों का भारतीय समाज ने बौद्धिक स्तर पर प्रतिवाद किया, और यह प्रतिवाद भारतीय इतिहासबोध को अर्जित करने की कोशिश थी। पुस्तक में इन्ही मुद्दों को पूरी संजीदगी के साथ विश्लेषित किया गया है।