ABOUT THE BOOK
आरम्भ में ‘विकास’ शब्द का उपयोग केवल आर्थिक वृद्धि के संदर्भ में ही किया गया। तत्पश्चात बहु-आयामी परिवर्तनों से गुजरते हुए इसने एक ऐसी अवधारणा का स्थान ग्रहण किया है जिसमें मानव समाज के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं में होने वाली विकास प्रक्रियाएं समाहित हैं। विकास का वास्तविक अर्थ व्यावहारिक एवं विवेकपूर्ण विकास है जिसका तात्पर्य नियमित आर्थिक वृद्धि के साथ-साथ मानवीय एवं सामाजिक विकास है। विकास की विशेषताएं आधुनिकीकरण की विशेषताओं के समान हैं। ये दोनों प्रक्रियाएं एक-दूसरे की परिपूरक हैं। एक समाज जब तक आधुनिक मूल्यों को नहीं अपनाता, विकास के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ सकता है। आज, विकास की योजनाएं केवल गुणवत्तापूर्ण उत्पादन में वृद्धि के लिये ही नहीं बल्कि उससे भी अधिक विकास की संधृतता को सुनिश्चित करने के लिये उद्यत हैं।
विकास का समाजशास्त्र एक ऐसा अध्ययन विषय है जो समाज और अर्थव्यवस्था के पारस्परिक सम्बन्धों के अवबोध का प्रयास करता है। इसमें यह खोजने का प्रयास किया जाता है कि किस प्रकार सांस्कृतिक-संरचनात्मक विकास एवं आर्थिक विकास एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। इस विषय के अन्तर्गत विकास के सहायकों एवं व्यवधानों को पहचानने के साथ-साथ राज्य की भूमिका का भी मूल्यांकन किया जाता है।
विकास की अवधारणाओं एवं आयामों के अतिरिक्त जिन महत्वपूर्ण मुद्दों की इस पुस्तक में विस्तार में चर्चा की गयी है उनमें विकास एवं अल्प विकास के सिद्धान्त, विकास के मार्ग एवं अभिकरण, संस्कृति, संरचना और विकास, नगरीकरण और विकास, भारत में आर्थिक सुधार एवं वैश्वीकरण, प्रौद्योगिकी और विकास, उद्यमिता तथा आधुनिकीकरण सम्मिलित हैं। यह पुस्तक इस प्रकार से नियोजित है कि विकास विषय को पढ़ने वाले अधिकांश विद्यार्थियों की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।
CONTENTS
• विकास का समाजशास्त्र
• विकास-अवधारणा एवं आयाम
• विकास एवं अल्पविकास के सिद्धान्त
• विकास के मार्ग एवं अभिकरण
• औद्योगिक उद्यमिता
• संरचना, संस्कृति और विकास
• प्रौद्योगिकी और विकासः प्रौद्योगिकी की भूमिका का सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष
• नगरीकरण और आर्थिक विकास
• आर्थिक सुधार एवं परिवर्तनः भारतीय सन्दर्भ
• आधुनिकीकरण
ABOUT THE AUTHOR / EDITOR
शिवबहाल सिंह ने टी.डी. स्नातकोत्तर महाविद्यालय, जौनपुर, उ.प्र. से समाजशास्त्र के प्रवक्ता के रूप में अपना शैक्षणिक जीवन शुरू किया। उन्होंने 1977 में भारतीय सामाजिक अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली की टीचर फेलोशिप प्राप्त की और पीएच.डी. की उपाधि पाने के बाद 1980 में गोरखपुर विश्वविद्यालय में पुनः अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया और वहीं से समाजशास्त्र विभाग के आचार्य एवं अध्यक्ष के रूप में सेवानिवृत्त हुए।
उद्यमिता का समाजशास्त्र, विकास तथा सामाजिक परिवर्तन उनकी रुचि के प्रमुख विषय हैं। उनके अनेक लेख प्रतिष्ठित पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में प्रकाशित हुऐ हैं। एन.सी.ई.आर.टी. ने हिन्दी और अंग्रेजी में उनकी समाजशास्त्र विषय पर महत्वपूर्ण पाठ्यपुस्तकों का प्रकाशन किया।
वर्तमान में वे भारतीय समाजशास्त्र परिषद की प्रबन्ध समिति के सदस्य हैं। सम्प्रति, वे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की प्रमुख अनुसंधान परियोजना पर शोध कार्य कर रहे हैं।