यह एक आम मान्यता है कि उपनिवेशवादी शिक्षा व्यवस्था का मकसद बाबू और निचले स्तर के अधिकारी पैदा करना था। यह निष्कर्ष एकदम सपाट है और कई अर्थों में भ्रामक भी। शासकीय दस्तावेजों, संचार माध्यमों, जीवनियों और अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी का पुनरीक्षण करके यह पुस्तक इस निष्कर्ष को चुनौती देती है। विश्लेषण के आधार पर लेखक यह वैकल्पिक स्थापना प्रस्तुत करता है कि उपनिवेशवादी शिक्षा कुछ देशज परंपराओं और औपनिवेशिक जरूरतों का जटिल सम्मिश्रण थी।
पिछले डेढ़ सौ सालों के दौरान उपजी राजनीतिक विचार श्रंखलाओं की रचना के संदर्भ में भारतीय शिक्षा के विकास की परीक्षा करते हुए लेखक यह तर्क देता है कि शिक्षा के राष्ट्रवादी और उपनिवेशवादी विमर्श देखने में मिलते-जुलते, लेकिन भिन्न अर्थों वाले थे। जहां तक अवधारणओं का सवाल है, दोनों कि अवधारणाएँ एक जैसी शब्दावली का इस्तेमाल करती हैं, पर उनमें निहित अर्थ सर्वथा भिन्न हैं।
पुस्तक दो हिस्सों में विभाजित है। पहले में औपनिवेशिक शासन की गतिकि का अध्ययन है और दूसरे में स्वतंत्रता संघर्ष की राजनीति और उसके मूल्यों का विवेचन है। इस अध्ययन से जाहिर है कि उपनिवेशवादी शासन ने इस देश में किसी नई शिक्षा वयवस्था की शुरुआत नहीं की, जैसा कि आम तौर पर विश्वास किया जाता है, बल्कि पहले से चली आ रही शिक्षा व्यवस्था को नई शक्ल भर दी। स्वतंत्रतासंघर्ष ने जरूर इस व्यवस्था को प्रभावित किया। द्वैतवादी मानसिकता और अधिक गहरी हुई जिसकी शुरुआत उपनिवेशवादी शासकों ने की थी। दूसरी तरफ स्वतंत्रता संघर्ष से उत्पन्न समानता और न्याय के विचार ने शिक्षा व्यवस्था की विचारधारा में कुछ मूलगामी विचारों को जोड़ा। लेकिन आंदोलन के भीतर के कुछ दूसरे प्रकार के मूल्यों ने शिक्षा विवश किया कि वह असमानता और पुनरुत्पादन को जारी रखे।