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आजादी मिलने के पहले भारत के अतीत की व्याख्या के अनेक संदर्भ थे। उनमें राष्ट्रवादी इतिहास लेखकों द्वारा पेश किया गया विवेचन केंद्रीय महत्व का है। इस पुस्तक का मकसद राष्ट्रवादियों द्वारा पेश की गई भारत के अतीत की व्याख्या की परीक्षा करना है। वर्तमान काल में सक्रिय विभिन्न रंगत के दक्षिण पंथी इतिहासकर आज उसको मनाने से इनकार कर रहे हैं। इसी संदर्भ में भारत के अतीत से जुड़े तमाम प्रशनों पर इस पुस्तक में विचार किया गया है।
इतिहासलेखन और ऐतिहासिक अनुसंधान में पद्धति का महत्वपूर्ण स्थान है। कई मामलों में इसकी भूमिका बेहद निर्णायक होती है। यह पुस्तक ऐतिहासिक अध्ययन की वस्तुपरक और वैज्ञानिक पद्धति की व्याख्या करते हुए भारतीय इतिहास के अध्ययन में उसके सार्थक प्रयोग की उपयोगिता और जरूरत को भी रेखांकित करती है।
लेखक का मानना है कि राष्ट्रवादी अवधारण की कुछ बातें अन्य बातों की तुलना में अधिक सशक्त रूप में हमारे सामने मौजूद हैं। कुछ कमियां भी है किंतु जिन कमजोरियों की ओर हमारा ध्यान जाता है, शायद वे ऐसी कमजोरियों नहीं हैं जिन पर हम ध्यान देते हैं। इसमें राष्ट्र की पहचान की बात को ले सकते हैं। इसकी क्लासिकी राष्ट्रवादी अवधारणा काफी व्यापक है, वह जाति, नस्ल या समुदाय से परिभाषित नहीं होती। कहीं उसके क्षेत्र महाद्वीप हैं तो कहीं वे उप-महाद्वीप हैं, इसके सरोकार, इसकी मुक्तिकामना या इसके लिए किया गया अभियान पार-राष्ट्रीय है, बहुत व्यापक और समावेशी है।
उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष के दौरान हमारे देश में जिस राष्ट्रवाद का विकास हुआ, उसका स्वरूप काफी व्यापक और समावेशी था। वह किसी जाति, नस्ल या धर्म के जरिए परिभाषित नहीं था जैसे आज का नकली संस्कृतिक राष्ट्रवाद है। उसमें हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिख, पारसी सभी शामिल थे।