यह पुस्तक भारत के आदिवासियों के जीवन और उनकी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का वस्तुगत विवेचन प्रस्तुत करती है, उन समस्याओं के तह में जाने और उनको वैज्ञानिक दृष्टि से समझने की दृष्टि भी देती है, इसके साथ ही यह एक सीमा तक उन समस्याओं के समाधान का रास्ता भी सूझाती है। यह रास्ता गैर-परंपरागत तरीके से उनको शिक्षित करने का है। आज की परंपरागत स्कूली शिक्षा इस काम को पूरा नहीं कर सकती। पिछले अनेक दशकों के आदिवासी शिक्षा से प्राप्तअनुभवों से यह बात साबित हो चुकी है। उनको शिक्षा देने की पद्धतिही नहीं, उनको उपकरणों को भी बदलने की जरूरत है। जिन उपकरणों का हम परंपरागत शिक्षा पद्धतिमें उपयोग करते आ रहे हैं, वे उनकी शिक्षा के लिए बेकार साबित हो चुके हैं।
पुस्तक हो खंडों में विभाजित है। पहले खंड में उनके सामाजिक-आर्थिक जीवन का विवेचन है, आधुनिकीकरण और उद्योगीकरण के कारण उनकी बदहाली के कारणों की पड़ताल की गई है। दूसरे खंड में उनको शिक्षित करने के के नए प्रयोगों का विवरण है, ऐसा शैक्षिक प्रयोग जिससे वे आत्मसजग होकर स्वयं अपनी स्थिति को बदलने के लिए प्रेरित हों।